महोबा का कजली महोत्सव केवल एक परंपरागत धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठान ही नहीहै बल्कि इसके साथ महोबा की आन-बान की रक्षा हेतु आल्हा-ऊदल के नेतृत्व में पृथ्वीराज चौहानके विरुद्ध सभी वीरों के हथियार उठाने और जान पर खेलकर अपनी लाज बचाने की स्मृतियां भी जुड़ीहै। इसलिए रक्षाबंधन के पर्व पर आयोजित इस कजली महोत्सव में पूरा बुंदेलखण्ड एक साथ उमडपड़ता है।
10 beautiful places to see in Mahoba – Mahoba tourism
महोबा की कजरिया (कजली महोत्सव)
परेवा के दिन कीरत सागर पर लाखों की भीड़ होती है और महोबा की स्त्रियां जल में कजली प्रवाहित करती हैं। दर्जनों की तादाद में टीवी चैनल इस क्षण को कैमरे में कैद करने के लिए दौड़ते रहते हैं। कवि घनश्याम ने भी इस क्षण को अपने शब्दों में बांधने की कोशिश की है- पहिन पटरंग बिरंगन की, अंग-अंग अनग लजावति हैं सिर पे कजरी,अॅखिया कजरी, मुख से कजरी धुन गावति हैं घनश्याम तला पे झला के झला, रहें ताड़ी भुजाएं हिलावति हैं दुनिया को डुबोये वो हाथन सों, दुनिया को डुबोय दिखावति हैं।
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धर्म नगरी चित्रकूट धाम – पावन नगरी चित्रकूट जहां भगवान राम ने 11 साल बिताए
महोबा का ‘विजय उत्सव’ है कजली मेला
आल्हा-ऊदल की वीरगाथा में कहा गया है ‘बड़े लड़इया महुबे वाले, इनकी मार सही न जाए..!’ आज से 831 साल पहले दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने राजकुमारी चंद्रावल को पाने और पारस पथरी व नौलखा हार लूटने के इरादे से चंदेल शासक राजा परमाल देव के राज्य महोबा पर चढ़ाई की थी. युद्ध महोबा के कीरत सागर मैदान में हुआ था, जिसमें आल्हा-ऊदल की तलवार की धार के आगे वह टिक न सके.
आल्हा-ऊदल की वीरगाथा में कहा गया है ‘बड़े लड़इया महुबे वाले, इनकी मार सही न जाए..!’ आज से 831 साल पहले दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने राजकुमारी चंद्रावल को पाने और पारस पथरी व नौलखा हार लूटने के इरादे से चंदेल शासक राजा परमाल देव के राज्य महोबा पर चढ़ाई की थी. युद्ध महोबा के कीरत सागर मैदान में हुआ था, जिसमें आल्हा-ऊदल की तलवार की धार के आगे वह टिक न सके.
युद्ध के कारण बुंदेलखंड की बेटियां रक्षाबंधन के दूसरे दिन ‘कजली’ दफन कर सकी थीं. आल्हा-ऊदल की वीरगाथा के प्रतीक ऐतिहासिक कजली मेले को यहां ‘विजय उत्सव’ के रूप में मनाने की परम्परा आज भी जीवित है.
कजली महोत्सव का स्वर्णिम इतिहास – आल्हा-ऊदल की वीरगाथा
इतिहास के कथा सूत्रों के मुताविक उरई नरेश माहिल ही 1181ई0 में हुए इस युद्ध कासूत्रधार है। उरई नरेश माहिल जिस प्रतिहार वंश का उत्तराधिकारी था, वही प्रतिहार पहले महोबा केराजा थे। किन्तु चंदेलों ने प्रतिहारों से महोबा के साथ ही उनके साम्राज्य के अधिकांश भाग छीन लिए।कभी चंदेल प्रतिहारों के सामंत थे किन्तु अब प्रतिहार चंदेलों की कृपा पर जीवित थे। खुद माहिल कोअपनी बहन मल्हना का विवाह चंदेल नरेश परमाल से करना पड़ा और उरई नरेश होते हुए भी उसेचंदेल राजवंश में मंत्री बनना पड़ा। माहिल अपने इस पुश्तैनी अपमान को कभी नहीं भूल पाया औरउसने चंदेल सत्ता का विनाश करने हेतु क्रमशः चार युद्धों -कजली की लड़ाई, सिरसा की लड़ाई,नदी बेतवा और बैरागढ़ की प्रस्तावना लिखी। इन युद्धों से चंदेल लक्ष्मी का पराभव हुआ, चंदेलों औरचौहानों के कमजोर होने से तुर्क भारत पर अधिकार करने में सफल हुए। माहिल का नाम आज भीउसके समकालीन जयचंद की तरह घृणा का पात्र है-
"ताल बिगारे ते काइन ने औ चुगलिन ने बिगारे गाँवमाहिल भूपत की चुगलिन से, बारा बॉट महोबा नाथ "
पृथ्वीराज चौहान के मदनपुर लेख के अनुसार चौहान सेना के कुछ सैनिक घायलावस्था मेंमहोबा पहुंचे। वहाँ उन्होंने उद्यान में कुछ समय के लिए विश्राम चाहा। माली के मना करने पर सैनिकोंने माली की हत्या कर दी। यह खबर जब दरबार में पहुँची तो माहिल और भोपति ने राजा कोभड़काया कि अपराधी सैनिकों की हत्या कर दी जाय। किन्तु ऊदल ने विरोध किया कि घायलसैनिकों की हत्या क्षत्रियोचित नही है। किन्तु मतिशून्य परमाल ने ऊदल को ही सैनिकों को प्राणदण्डदेने हेतु भेजा। इसका प्रतिशोध लेने पृथ्वीराज महोबा आ धमका।मदनपुर अभिलेख की उपरोक्त बातें सत्य होते हुए भी पूर्ण नहीं हैं।
चंदेल एक समृद्धसाम्राज्य था। म0प्र0 के भिण्ड जिले से लेकर वाराणसी तक का उर्वर क्षेत्र उसके अधीन था। चंदेलसत्ता के पराभव के बिना पृथ्वीराज का दिल्लीपति बनना अधूरा था, इसलिए चंदेल उसके निशाने परथे। माहिल ने तो सिर्फ मौका दिया।माहिल यह जानता था कि आल्हा-ऊदल जैसे शूरवीर महोबा में हैं तब तक परमाल कापराभव असंभव है, अतः वह इनके विरुद्ध हमेशा राजपद का कान भरता रहता था। एक दिन माहिल नेराजा से कहा कि आल्हा-ऊदल के पास उड़ने वाले घोड़े हैं, भुजबल इनके पास है ही, ये किसी समय आपसे राजपद छीन सकते हैं। परमाल तुरंत माहिल के झांसे में आ गए, उन्होंने तुरंत ऊदल सेअपने पाँचों उड़नघोड़े देने को कहा। किन्तु ऊदल ने विनम्रता से यह कहते हुए मना कर दिया किक्षत्रिय अपनी तलवार और घोड़ा किसी को मांगने पर नहीं देते, इन्हें केवल लड़ कर ही लिया जासकता है।
राजा परमाल को यह विनम्र इंकार भी अपने आदेश का उल्लंघन लगा। उसने तुरंतऊदल को सपरिवार चंदेल साम्राज्य की सीमा से दूर जाने को कहा और ये तीन शर्ते रखीं-1 अगरतुम महोबा का अन्न खाते हो तो समझो कि गोमांस खाते हो, 2-जल ग्रहण करते हो तो समझो गायका खून पीते हो, 3 और अपनी पत्नी के साथ सहवास करते हो तो यह माँ के साथ सहवास होगा।यह भादों का महीना था। यात्रा दुर्गम थी किन्तु इन तीन शर्तों ने सबको किंकर्तव्यविमूढकर दिया था। इसी समय परमाल पुत्र ब्रह्मा पहुँचे । आल्हा को लगा कि ब्रह्मा उन्हें मनाने आए हैं,किन्तु ब्रह्मा का आना आग में घी था। ब्रह्मा ने राजवंश द्वारा प्रदत्त सभी वस्तुएं लौटाने का फरमानसुनाया।
बनाफरों ने यह भी मान लिया और ताला सैयद, ढेबा, देवला, बिरमा, सोनवां, फुलवा,चित्ररेखा-इंदल सबका काफिला महोबा से बाहर जाने को तैयार हुआ। ऊदल को इस समय महोबाकी बहुत याद आ रही थी। वह एक बार जाकर जगनिक से मिलना चाहता था, रानी मल्हना कोप्रणाम करना चाहता था, बहन चंद्राबल से गले मिलकर रोना चाहता था। किन्तु ऊदल गली-2घूमता रहा लेकिन राजा के आदेश से सबके दरवाजे बंद मिले। थका-हारा ऊदल कीरत सागर कापानी पीकर महोबा को प्रणाम कर अपने काफिले से जा मिला- इतिहास सतयुग तक जाता था। सतयुग में इसे “महोदय” कहा गया,त्रेता में “कुशस्थली’ फिर “गाधिपुरी और बाद में “कान्यकुब्ज”- कृते महोदयं नाम त्रेतायां च कुशस्थली। पुनः गाधिपुरी जातं कान्यकुब्ज यतः परम् । कन्नौज का बिलग्राम ही “बालिग्राम’ है।
यह विष्णु का प्रिय निवास था। इसे गुहृयतीर्थ कहा गया। यहीं महाराज कुशनाभ की सौ पुत्रियों जिन्हें पवनदेव ने कुब्जा बना दिया था, का पाणिग्रहण काम्पिल्य के ब्रहमदत्त के साथ हुआ था। भरत की माता शकुन्तला के पालनकर्ता कण्व के शिष्यों ने गंगातट पर कुब्जकपुष्पों से परिवेष्ठित कण्वकुब्जिका यहीं विकसित की। कालान्तर में इसे कान्यकुब्ज कहा गया। कान्य और कुब्ज नामक दो भाई राजा राम द्वारा यज्ञ में आमंत्रित किए गए थे। यज्ञ स्थल पहुंचने पर कुब्ज को लगा कि राम ने ब्राह्मण वध किया है, अतः यज्ञ में सम्मिलित होना उचित नही है। फलतः कुब्ज लौट गए और कान्य ने यज्ञ में दानादि लिया और वहीं रह गए। कुब्ज के साथ जो लौट गए वही कान्यकुब्ज कहलाए और कान्य के साथी जो सरयूपार बस गए वही सरयूपारीण कहलाए।किन्तु जयचंद भी बनाफरों को शरण देकर परमाल को अपना शत्रु नहीं बनाना चाहता था।अतः उसने शुरू में इन लोगों को शरण देने में आनाकानी की। किन्तु जब उसकी कूट बुद्धि जगी तोउसे याद आया कि बनाफर चंदेलों की तरह उसके भी सामाज्य विस्तार में योगदान दे सकते हैं।
गाँजर, विजहट, कुडहर और विरियावाले हीरसिंह-वीरसिंह सब इस समय जयचंद को आँखे दिखारहे थे। आल्हा-ऊदल इस समय जयचंद को उपयोगी हो सकते थे। उसने रिजगिरि रियासत औरचंद्रगिरि का दुर्ग खुशी-2 उनके भरण-पोषण के लिए दे दिया।अब माहिल के लिए मैदान खाली था। उसने तुरंत पृथ्वीराज को खबर भेजी। चौहान मौकेकी ताक में तो था ही,तुरत रक्षाबंधन के मौके पर महोबा आ धमका। चौहान सेना ने महोबा के चारोंतरफ अपना शिविर लगाया। इस घेरे से महोबा की स्थिति वैसे हो गई जैसे हार के बीच गला याबत्तीस दातों के बीच जीभ । सूपा, करहरा, पचपहरा, उर्मिल सागर, कल्याण सागर सब जगह दिल्लीसेना के बड़े-2 दल ठहरे। खुद पृथ्वीराज सालट-मालट के जंगलों में रुका।
कलचुरियों ने भी चंदेलोंसे इसी समय अपना हिसाब-किताब करना जरुरी समझा और चौहान की मदद के लिए उन्होंने भीअपनी एक बड़ी सेना भेजी जिसने चरखारी में अपना अड्डा जमाया।महोबा पहुँचकर पृथ्वीराज ने राजा परमाल को अपनी शर्ते भेजी अथवा युद्ध का आमंत्रणदिया। उसने कालिंजर और ग्वालियर का किला, खजुराहो की बैठक, पारस पथरी, नौलखा हार सबएक साथ मागा। लेकिन राजकुमारी चंद्राबल का डोला इस फेहरिस्त की सबसे घृणित शर्त थी।चंद्राबल राजा परमाल की इकलौती पुत्री थी। उसका विवाह बारीगढ़ में राजा वीरसिंह यादव औरसुदरी के पुत्र इंद्रसेन से हुआ था। यह रियासत चंदेल साम्राज्य के अंतर्गत होते हुए भी लगभगस्वायत्त थी। लगभग 10 किमी0 में फैला यहाँ का राजमहल एक बड़ी प्राचीर के अंदर है। इतनी लंबी बाड़ अन्य किसी किले में नहीं है। पृथ्वीराज चंद्राबल का विवाह अपने पुत्र ताहर के साथ करना चाहताथा और यह विवाह भी कीरत सागर के तट पर होना था-
खजुहागढ़ की बैठक लिख दई, लिख दियो नगर ग्वालियर क्यारपानन का लिखे नगर महोबा औ सपरें के किरतुआ ताललिखी खदान पन्ना वाली, जहाँ हीरन के खुदे खदानकिला कालिंजर का लिख दीन्हों, घोड़ा हरनागर सो जानपारस पथरी को लिख दीन्हों, लोहो छुवत सोन होइ जाइनाच को लिख दई लाखा पातुर, भूषन को नौलखा हारडोला लिख दियो चंद्राबल को, ताहर संग करो विवाहयज्ञस्थलताल किरतुवा मड़वा बनिहै, खम्भा बनिहै लोटन आम
ये शर्ते सुनते ही परमाल के हाथ-पाँव फूल गए। अब परमाल को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। आल्हा-ऊदल का निष्कासन उन्हें अब भारी पड़ रहा था। माहिल ने तुरंत सभी शर्ते स्वीकार करने और चंद्राबल का डोला देने का मशविरा दिया। परमाल भी इसी पक्ष में था। किन्तु रानी मल्हना, राजकुमार ब्रह्मा, रंजीत और अन्य दरबारीगण आपे से बाहर थे। चंद्राबल को भरोसा था कि अगर यह खबर कन्नौज उसके ऊदल भैया के पास पहुँच जाए तोउसकी लाज बच जाएगी। लेकिन कन्नौज खबर जाए कैसे?पृथ्वीराज का सेनापति चौड़ा जब देखता कि महोबा के आसपास में कोई चिड़िया उड़ रही है तो बाज छोड़कर उसे मरवा देता, कोई कुत्ता भौंकता तो तोप दगवा देता-
उडै चिरैया गढ़ महोबे में, चौड़ा बाज देत छोड़वाए कुत्ताभौके जो महोबा में, चौड़ा देत तोप दगवायलेकिन मल्हना ने एक युक्ति निकाली। उसने जगनिक के पुत्र जल्हन के माध्यम सेपृथ्वीराज चौहान को पचास हजार पान, गुलाब, घोड़ों की भेंट भेजकर यह निवेदन किया कि पंद्रहदिन के लिए युद्ध को टाल दिया जाए। पृथ्वीराज ने क्षत्रियधर्म का निर्वाह करते हुए पंद्रह दिन तकयुद्ध स्थगित रखने की शर्त मान ली। तब मल्हना ने एक मार्मिक पत्र जगनिक के माध्यम से आल्हा कोलिखा और जल्द महोबा आने की गुहार की। मल्हना ने यह भी लिखा कि यदि आने में देर कर दी तोतुम्हें महोबा में केवल राख मिलेगी-
घर-2 महोबा पृथ्वी घेरा, फाटक बंद दियो करवायतुम बिन विपदा हम पर गिर गई, बेटा हमको होऊ सहायनगर महोबा जब लुट जैहें, तब का खाक बटोरबा आययाही दिन को हम पालो है, को अइसन में अइहे कामसो तुम छाए रहे कनवज में हम पर परी आपदा आएदेखत चिट्ठी के आवो तुम, राखा धर्म चन्देले क्यार
लेकिन जगनिक को देखते ही आल्हा-ऊदल भड़क उठे। घनघोर बारिश में भीगते महोबा छोड़ना उनके कलेजे में घुसा था। महाकवि जगनिक अब अपना सारा रस-छंद भूले चुपचाप खड़े थे। ऐसे समय में आल्हा की माँ देवल देवी सामने आई। उन्होंने अपने पुत्रों को धिक्कारा, उनके राष्ट्रप्रेम की याद दिलायी। यहाँ तक सुना दिया कि” मै अब तक समझती थी कि मैने शेरों को जन्म दिया है, लेकिन आज मुझे पता चला है कि मैंने गीदड़ जन्में हैं। मुझे इसका आभास पहले होता तो पैदा होते ही सूतिका गृह में तुम दोनों का गला दबा देती।” देवल देवी ने इस समय जो कहा वह आल्हखण्ड की सर्वाधिक बेशकीमती पंक्तियां हैं और शायद सबसे चर्चित भी जिसे स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए-
बारह बरस ले कूकुर जीवै, औ सोलह ले जिए सियार बरस अठारह क्षत्रिय जीवै, आगे जीवन को धिक्कार सदा तुरैया न बन फूलै, यारों सदा न सावन होए स्वर्ग मडैया सब काहूँ की, यारों सदा न जीवन होए
राजस्थान के इतिहासकार कर्नल टॉड ने देवल देवी के उपर्यक्त गुणों को देखकर उसे विश्व की सबसे वीर एवम चरित्रवान महिला माना है। माँ की फटकार सुनकर अंततः आल्हा-ऊदल महोबा जाने को तैयार हुए। जयचंद ने लाखन और एक बड़ी सेना भी इनके साथ भेजी। राजकुमार लाखन उस समय नवविवाहित थे। नवोढ़ा कुसुमा ने बहुत कोशिश की, लेकिन लाखन तो मित्र ऊदल के साथ जीने-मरने की कसम खा चुका था। ये सभी सिरसा मलखान के पास पहुँचे । मलखान भी इनके साथ महोबा आया, ऐसा चंदबरदाई बताता है। ये सभी लोग जोगियों के वेश में करिया पठवा के पास आकर रुके।
इन जोगियों ने अपनी पहचान तो उजागर नहीं की लेकिन रानी मल्हना से मिलकर यह बता दिया कि आप लोग बेफिक्र होकर कजली प्रवाहित करें और महोबा के नौजवानों से कहिए कि रक्षाबंधन का पर्व तब मनाएं जब दुश्मन पीठ दिखाकर महोबा से भाग जाए। पंद्रह दिन का समय पूरा हो चुका था। अब मल्हना के पास दो ही विकल्प थे-युद्ध अथवा समर्पण । उसने युद्ध चुना। राजदरबार में युद्ध का ताना-बाना रचा गया। पूर्व दिशा की सेना चरखारी के चक्रपान जगतेष के नेतृत्व में दक्षिण यादव बंधु दौगड़ दौआ, उत्तर रावराय के नेतृत्व में रखी गयी। लेकिन पश्चिमी कमान का दायित्व लेने के लिए कोई तैयार न था। जगनिक थाल में पान का बीरा रखे सबको ललकार रहा था लेकिन यहाँ कान्हराय और चौड़ा का कठिन मोर्चा था, इसलिए किसी का साहस न हुआ। ऐसे कठिन समय में उरई नरेश माहिल का पुत्र अभई आ धमका।चंद्राबल उसकी सगी बुआ की पुत्री थी। बचपन से ही चंद्राबल उसकी प्रिय थी। उसका डोला दिल्ली जाए, यह अभई को सहन नहीं था। उसने थाल में रखा बीरा उठा लिया और महोबा की युवा शक्ति को ललकारा। माहिल को जब यह खबर लगी तो वह सिर पीटकर जोर-जोर रोने लगा। कहाँ तो उसने एक तीर से दो निशाने साधे थे कि चौहानों और चंदेलों के विनाश के उपरांत सारा उत्तरी भारत उसके कब्जे में होगा, लेकिन अभई ने उसका सारा खेल बिगाड़ दिया था।
माहिल जानता था कि अभई की सारी वीरता पृथ्वीराज के सामने पंगु हो जाएगी, लेकिन अब तीर माहिल के हाथ से निकल चुका था। अभई और पृथ्वीराज कोई भी एक तिल पीछे हटने को तैयार नहीं था। माहिलपुर आई जालीन श्रावणी पूर्णिमा के दिन कीरत सागर के पाट पर भयंकर युद्ध शुरु हुआ। मोर्चे पर सबसे पहले अभई आया। वह आपे से बाहर था। लगता जैसे कोई दैवी शक्ति आज उसकी देह में उत्तर आई है। पृथ्वीराज का पुत्र सूरज और महायोद्धा टंक अभई के हाथों मारे गए। अमई के ऊपर नियंत्रण की सारी कोशिशें बेकार साबित हो रही थीं। अंत में पृथ्वीराज ने महावीर कान्हराय को भेजा। कान्हराय ने अभई को बहुत समझाया, युद्ध से विरत होने को कहा, जीतने पर पारस पथरी और महोबा का आधा राज्य भी देने को कहा, लेकिन अभई ने एक फटकार में ये लालच हवा में उड़ा दिए।
उसी समय किसी ने धोखे से पीछे से आकर अभई की पीठ में भाला मार दिया। अभई के घायल होते ही चौडा की ललकार पर ताहर ने अभई का शीश काट लिया। माहिल का सब कुछ लुट गया। अभई का बलिदान माहिल का पाप धो गया। श्री शिवानंद मिश्र ने अभई की लड़ाई और उसके युद्ध को बहुत खुबसूरत पंक्तियों में उकेरा है- पर किसी नीच ने पीछे आकर भोंक दिया पैना भाला माहिल सुत हुआ धराशायी,वह आन बान का मतवाला सेनापति चौड़ा ने आगे बढ़कर ललकारा ताहर को अभई का शीश काट लो, छोड़ो मत घायल नर नाहर को ताहर का काल खड्ग चमका, सिर कटकर कुण्ठित हुआ नहीं छल है, धोखा है, कुटिल नीति, युद्ध में धर्म है कहीं नहीं जैसे ही रुण्ड कटा धड़ से, अभई का जाग्रत रुण्ड हुआ उन अन्धाधुन्ध प्रहारों से रणथल लोहू का कुण्ड हुआ घमासान युद्ध में अभई राज दुलारा चिर निद्रा सोया उस दिन जब माहिल रोया, बेत्रवती रोया, बिरंच रोया अभई की मृत्यु के पश्चात परमाल के छोटे पुत्र रंजीत ने मोर्चा संभाला।
किन्तु कान्ह राय से द्वद युद्ध में रंजीत मारा गया। रंजीत और अभई की समाधियां महोबा के बंधान वार्ड में हैं। दोनों की मौत की खबर सुनकर चंदेल सेना में भगदड़ मच गयी, राजमहल मल्हना और चंद्राबल के चीत्कारों से भर गया। किन्तु परमाल के बड़े पुत्र ब्रह्मा ने सबको ढाढस बंधाया, सैनिकों की स्वामिभक्ति को ललकारा । ब्रह्मा ने रानी मल्हना से कहा कि “सब लोग विष की छुरी और कटार लेकर कीरत सागर पहुँचो और कजली प्रवाहित करो। जीते जी दिल्ली मत जाना, मरने पर चील-कौए हड्डियां भले ले जाएं।” मल्हना सात सौ पालकियों के साथ कीरत सागर पहुँची। सभी पालकियों में विष कटार के साथ स्त्रियां बैठी थीं। चौड़ा यह देखकर खुश हुआ कि रानी ने समर्पण कर दिया है। लेकिन तभी ब्रह्मा का तूर्य सुनायी पड़ा ।
भगी हुई चंदेल सेना फिर कीरत सागर उमड़ी आ रही थी। ब्रह्मा ने अपनी माँ से यह भी कह दिया कि जब तक मेरे घोड़े की हुंकार सुनायी देती रहे तब तक सब लोग गीत गाना और कजली प्रवाहित करना- जब तक रण हुंकत रहो, घोड़ा करे उछाड़ तब तक मंगल गाइये कीरत सर की पार हंक पाण लोपै जबै, थके जो भुजबल मोर रज राखो चंदेल की, निज कुल लाज बहोर विष पुरिया छुरिया दई, सबके हाथ गहाय कर न गहै चौहान नृप, सुर पुर पाँव पठाय कीरत सागर के पाट पर ब्रह्मा ने विकट युद्ध किया। चौहान सेना के दो शूरवीर सरदन -मरदन उसके पहले ही वार में मारे गये।
महामल्ल कान्ह कुँवर ब्रह्मा का वार बचाने के चक्कर में हाथी से गिर पड़े, उनके लिए दूसरा हाथी मँगाया गया। चौड़ा के निर्देश पर पूरी चौहान सेना ने ब्रह्मा को घेर लिया। जब ब्रह्मा मल्हना की आँख से ओझल हो गया तो रानी ने सोचा कि उसका ज्येष्ठ पुत्र भी खेत रहा। उसने महोबा की स्त्रियों को शपथ दिलायी कि पृथ्वीराज के हाथों में पड़ने से बेहतर है कि कीरतसागर में डूब कर प्राण दे दिया जाए। मल्हना के निर्देश पर हाथी पानी की अतल गहराइयों में मोड दिया गया। आल्हा, ऊदल, लाखन, ढेबा, ताला सैयद का दल जोगियों के वेश में पड़ा था। वह किसी माकूल घड़ी की प्रतीक्षा में था। लेकिन मल्हना को डूबते देख ऊदल और लाखन कीरत सागर में कूद पड़े। ऊदल ने हाथी की सूड पकड़कर मल्हना को बाहर निकाला। इस अराजकता की स्थिति में ताहर चंद्राबल का डोला लेकर पचपहरा भाग गया था। लाखन जोगियों के साथ पचपहरा पहुँचा और ताहर को पराजित कर डोला वापस लाया।
उधर ऊदल अन्य साधुओं के साथ चौहान सेना से भिड़ा था। युद्ध का अंतिम क्षण जानकर पृथ्वीराज भी मैदान में पहुँचा। उसे देखते ही चंदेल सेना में भगदड़ मच गयी। उसका सामना किया आल्हा ने। लेकिन जैसे ही आल्हा सामने आया, चंदबरदाई ने पृथ्वीराज का हाथ पकड़ लिया। उसने बताया कि आल्हा को अमरत्व का वरदान है, इसे पीठ दिखाकर भाग चलो, अन्यथा तुम ससैन्य मारे जाओगे। पृथ्वीराज ने आल्हा को पीठ दिखायी और उसके पीठ दिखाते ही चौहान सेना बैरंग मैदान से भाग गयी- गुरु गोरख को पाय अमर वर, साठ लाख जिन हने पठान पितु हत्या का बदला लेके, बेला ब्याह में पायो मान गन्धर्व जीत अश्व लै लीन्हों, जैचन्द को भज्यो अभिमान महुबे कजलियन सर कीरत पर जीत्यो शब्दभेद चौहान तूफान गुजर जाने के बाद अब सब लोग कीरत सागर के किनारे थे।
चंद्राबल ने कजली प्रवाहित करने के बाद सबसे पहले लाखन को दिया, क्योंकि इसी साधु की बदौलत इसके प्राण बचे थे। लाखन ने उसे दस हाथी देने का वचन दिया। मल्हना ने ऊदल की तरफ इशारा करके कहा कि इस छोटे योगी को भी कजली दो, इसने मुझे डूबने से बचाया। चंद्राबल ने ऊदल को कजली दी, तो ऊदल ने अपने हाथ का कड़ा निकालकर दिया। कड़ा देखते ही चंद्राबल ऊदल को पहचान जाती है और उससे लिपटकर रो पड़ती है। राजा परमाल अपने कृत्यों के लिए आल्हा ऊदल से क्षमा मांगते हैं, चंद्राबल ऊदल का पैर पकड़कर महोबा में ही रहने का आग्रह करती है, लेकिन आल्हा ने परमाल को उसकी तीनों शर्ते याद करायी, कन्नौज की राह पकड़ी तथा बुरे वक्त में साथ देने का वचन दिया।
दूसरे दिन परेबा था। महोबा में धूमधाम से बहनों ने भाइयों को राखी बांधी। मल्हना ने शिवताण्डव की प्रतिमा का जलाभिषेक किया। उस क्षण की स्मृति में महोबा में आज भी रक्षाबंधन परेबा के दिन मनाया जाता है। हवेली दरवाजा शहीद स्थल से एक विजय जुलूस निकलकर कीरत सागर पर समाप्त होता है। रायबहादुर शिवचरनलाल तिवारी ने इस जुलूस की परम्परा डाली थी। नगरपालिका महोबा एक सप्ताह तक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करती है। आल्हा की चौकी इस एक सप्ताह तक आल्हा मंच का रुप ले लेती है और आल्हा परिषद के संयोजक श्री शरद तिवारी दाऊ के नेतृत्व में एक सप्ताह तक रात-दिन बुंदेली नृत्य व गायन की प्रस्तुति होती है।