भूरागढ़ दुर्ग ऐतिहासिक दुर्ग है, जो बाँदा शहर में केन नदी के तट पर स्थित है। यह दुर्ग भग्नावस्था में भी स्वतः अपनी गौरव गाथा का वर्णन करता है। देखने में यह दुर्ग ज्यादा प्राचीन नहीं लगता। अभी तक यह पता नहीं चल सका है कि इस दुर्ग का वास्तविक निर्माता कौन था? इसकी निर्माण शैली मध्ययुगीन शैली से मिलती है। उपलब्ध ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार जैतपुर में निवास करने वाले महाराज छत्रसाल के पुत्र जगतराज के उत्तराधिकारियों ने इसका निर्माण करवाया था।
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यह जगतराज के पुत्र कीर्ति सिंह के माध्यम से अस्तित्व में आया। जब कीर्ति सिंह ने अपने राज्य का विभाजन किया तब उन्होंने अपने पुत्र खुमान सिंह को चरखारी के आसपास का क्षेत्र दे दिया और अपनेदूसरे पुत्र गुमान सिंह को बाँदा से लेकर अजयगढ़ का राज्य दे दिया। खुमान सिंह के पुत्र का नाम बख्त सिंह था। शिशुवस्था में उनका पालन पोषण करने के लिए नोने अर्जुन सिंह को नियुक्त किया गया था। इसी समय अवध के नवाब का आक्रमण बाँदा में हुआ था। बख्त सिंह की सेनाओं ने अवध के नवाब की सेनाओं को खदेड़कर भगा दिया।
सन् 1730 में महाराज छत्रसाल का स्वर्गवास हो गया था। उन्होंने अपने जीवनकाल में यह दुर्ग और राज्य का 1/3 भाग पूना के पेशवा बाजीराव को उपहार स्वरुप गेट इसलिए दे दिया था कि जब बुदेलखण्ड में मुहम्मद खाँ बंगश का आक्रमण हुआ था तो पेशवा बाजीराव ने छत्रसाल की मदद की थी।उसके पश्चात सागर में रहकर गोविन्द बल्लाल खेर यहाँ के उन क्षेत्रों की देख-रेख करते थे जो बाजीराव पेशवा को छत्रसाल से मिले हुए थे। बाँदा में मराठा प्रतिनिधि कृष्णाजी अनंत तांबे रहा करते थे।
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सन 1746 के आसपास मराठों और बुंदेलों के मध्य सरदेशमुखी टैक्स की अदायगी को लेकर कुछ विवाद हुआ। इस विवाद ने युद्ध का रूप ले लिया। मल्हार जी होल्कर और ग्वालियर नरेश सिंधिया ने सन 1746 में जैतपुर और पन्ना पर आक्रमण कर दिया। जैतपुर नरेश जगतराज और पन्ना नरेश समासिंह को भूरागढ़ दुर्ग तक खदेडा और यही मराठों और सुंदेलों का दूसरा समझौता हुआ। सन 1787 के बाद शमशेर बहादुर प्रथम को पुत्र अलीबहादुर प्रथम को सिंधिया के सहायतार्थ दिल्ली भेजा गया। इस समय मराठ मुगलों की सहायता कर रहे थे।
इसी समय गुलाम कादिर ने मुगल बादशाह शाहआलम की आँखे निकाल ली थी। ग्वालियर में अलीबहादुर प्रथम की मुलाकात हिम्मत बहादुर गोसाई से हुई। दोनों ने संयुक्त रुप से गुलाम कादिर को दण्ड दिया। इसके पश्चात बुदेलखण्ड में मराठों का शासन देखने के लिए अलीबहादुर हिम्मत बहादुर गोसाई को साथ सन् 1791 में बाँदा आ गये। इस समय भूरागढ़ दुर्ग में नोने अर्जुन सिंह प्रशासनिक देखभाल करता था।
कहते हैं कि एक प्रेम प्रसंग भूरागढ़ दुर्ग में चल रहा था। राजघराने की किसी राजकुमारी का प्रेमसंबंध सरबई के निकट रहने वाले नटों के गाँव के एक युवा नट से हो गया था। उस समय यहाँ के कार्यरत शासक ने यह शर्त रखी कि यदि नट रस्सी से केन नदी को पार कर लेगा तो उसकी प्रेमिका का विवाह उससे कर दिया जायेगा। नट ने यह शर्त स्वीकार कर ली। नट नदी पार करने वाला ही था कि यहाँ के शासक ने रस्सा कटवा दिया, जिससे नट की मृत्यु रस्से से गिरकर हो गयी थी। प्रेमी की मौत का सदमा किलेदार की बेटी बर्दाश्त न कर पायी, उसने भी किले से छलांग लगाकर अपनी जान दे दी।
नट पर श्रद्धा रखने वाले व्यक्तियों ने दुर्ग के निकट उसकी स्मृति को ताजा बनाये रखने के लिए एक नटबली मंदिर का निर्माण करा दिया, जो आज भी भूरागढ़ दुर्ग की प्राचीर के सन्निकट बना है। मकर संक्राति के पर्व पर यहाँ मेला लगता है तथा नट को लोग अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। आसपास के इलाकों मे इस आयोजन को “आशिकों का मेला” नाम से जाना जाता है।
प्रेम के लिए अपने प्राणों को न्योछावर कर देने वाले नट महाबली के मंदिर मे मकर संक्रांति पर लगने वाले मेले मे हजारों की संख्या मे प्रेमी जोडे इस मंदिर मे अपनी अपनी मम्मत मांगने के लिए आते हैं। स्थानीय लोग इसे प्रेम का मंदिर मानते हैं, श्रद्धालु केन नदी मे स्नान करके मंदिर मे भूरागढ़ किले मे स्थित प्यार के मंदिर मे पूजा करते हैं और मुराद मांगते हैं। इस बारे मे यहां के स्थानीय लोगों मे यह कहानी बहुत प्रचलित है।
सन् 1792 में अलीबहादुर प्रथम ने नोने अर्जुन सिंह से यह गढ़ जीत लिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया तथा उसी दुर्ग में रहकर उसने नवाब बाँदा की उपाधि धारण की। इस अभियान में हिम्मतबहादुर उसका सहायक था। हिम्मतबहादुर के साथ एक महाकवि पद्माकरभट्ट
रहा करते थे। इनके पिता का नाम मोहन भट्ट था। ये तैलंग ब्राहमण थे। इन्होंने जगत विनोद, गंगालहरी, हिम्मतबहादुर विरदावली. प्रबोध पचासा, बालाजी प्रकाश, बाल्मीकि रामायण एवम पदमाभरण नामक ग्रंथों की रचना की। इनका मकान राजकीय बालिका विद्यालय के निकट था। इन्हें
केन नदी बहुत प्रिय थी। केन नदी के तट पर निवास करने वाली केवट जाति की बालिका सुधा से इनका प्रेम हो गया। इसी बालिका से प्रभावित होकर उन्होंने अपने नाम के सामने सुधाकर जोडना प्रारम्भ कर दिया। वो सुधा को देखकर कविता लिखते। कुछ दिन बाँदा में निवास करके पद्माकर
सागर चले गये और वहाँ से कई वर्षों बाद लौटे। उसके बाद उन्हें मालुम हुआ कि सुधा ने उनके वियोग में प्राण त्याग दिये । पदमाकर ने अपना शेष समय भूरागढ़ दुर्ग में बिताया और अपनी प्रेयसी को याद करते रहे-
अलि है कहाँ अरविन्द सो आनन, इन्दु के हाल हवाले परयो
पदमाकर भाषा न भाये बने जिय ऐसे कछुक कसाले परयो
सन् 1802 में नवाब अलीबहादुर प्रथम की मृत्यु कालिंजर में हो गयी थी, उसके पश्चात नवाब समशेर बहादुर बौदा के नवाब बने। इस समय हिम्मतबहादुर गोसाई अंग्रेजों से मिल गया। अवसर का लाभ उठाते हुए 6 दिसम्बर 1803 में अंग्रेजों की सेना शमशेर बहादुर के राज्य में घुस आयी। इस सेना
गतोपखाने.घुडसवार और पैदल सैनिक शामिल थे तथा सेना का नेतृत्व ले० पावेल कर रहे थे। इसी कीय पावेल और हिम्मतबहादुर ने बौदा पर अधिकार कर लिया और शमशेर बहादुर को केन के तट से हटने को विवश कर दिया।
शमशेर बहादुर ने पुन भूरागढ़ लेने का प्रयास किया पर असफल सााकालासर म अग्रजी ने यह दुर्ग अजयगढ़ रियासत के उत्तराधिकारियों को सौंप दिया। सन 1857 की शातिर बौदा के नवाब अलीबहादुर द्वितीय ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जब याति प्रारम्भ हुई तो उसका प्रभाव बौदा पर भी पड़ा। जून 1857 में यही कान्ति का शुभारम्भ हो गया। अनेक अंग्रेज अधिकारियों को मारकर बौदा नगर और भूरागढ़ दुर्ग में क्रांतिकारियों का कब्जा हो गया। 12 जून से लेकर 14 जून तक कांति होती रही और 14 जून को यहाँ से अंग्रेज पलायन कर गये और बौदा के नवाब स्वतंत्र शासक हो गये।
15 जून 1857 से लेकर 20 अप्रैल 1800 तक भूरागढ़ दुर्ग बाँदा नवाच के अधिकार में रहा। इसी बीच हिटलोक का आक्रमण यहाँ हुआ। क्रांतिकारियों का युद्ध हिटलॉक से गोयरा मुगली. भूरागढ़ दुर्ग, बाँदा शहर में हुआ। इस युद्ध में लगभग 3000 से अधिक क्रांतिकारी मारे गये किन्तु बाँदा गजेटियर तथा सरकारी रिकार्डो में केवल 800 व्यक्तियों के शहीद होने की खबर है। क्रांति के पूर्व नवाब ने भूरागढ़ दुर्ग की मरम्मत करायी थी और इसकी किलेबंदी की थी किन्तु तात्या टोपे के आह्वान पर बाँदा नवाब क्रांतिकारियों को अकेला छोड़कर कालपी चले गये।
यहाँ की क्रांति क्रूरतापूर्वक दबा दी गयी। जिन लोगों को यहाँ मृत्युदण्ड दिया गया, उनके नाम सरकारी फाइलों में दर्ज हैं। क्रांति समाप्त होने के पश्चात जब अंग्रेजो ने यहाँ रेलवे लाइन का शुभारम्भ किया तो दुर्ग में तोड़-फोड़ की गयी। कालांतर में यह दुर्ग साधु-सतो और बदमाशों का अड्डा बन गया। इस दुर्ग में पहले 55 एकड़ भूमि थी जो अब सिमट कर 9.5 एकड़ रह गयी है। दुर्ग की प्राचीर और आवासीय स्थल भग्नावशेष के रुप में देखे जा सकते हैं।
कई प्रलोभी व्यक्तियों ने धन की लालच से दुर्ग का उत्खनन किया है तथा दुर्ग की प्राचीर के पत्थर शासन द्वारा निर्मित पानी की टंकी में लगा दिये गए है। कतिपय लोगों ने दुर्ग पर कब्जा कर लिया है और उसके किनारे मकान बनवा लिए है। दुर्ग के सन्निकट क्रांतिकारियों के स्मारक भी है। जलाशय के नाम पर केवल एक बीहड शेष रह गया है। बाँदा में आज भी गाया जाता है-
कर लयी पूजा सुमर लयी राम
मूरागढ़ के किले में खूब लड़े जवान
नौ सी खुरपी हजार हेसिया
भागे फिरगी महोबा को जाय
राजा परीक्षत बदेरत जाय।